आदिवासी समुदाय को असंवैधानिक शब्द वनबंधु से संबोधित करना उचित नही है

आदिवासी समुदाय को जंगल से बेदखल करने वाले सुप्रिम कोर्ट के ओर्डर के सबंध मे रिव्यु पिटीशन करने गुजरात सरकार के मुख्यमंत्री विजय रुपाणी जी ने घोषणा की है । साथ ही ईस समस्या को लेकर उच्चस्तरीय समिति का गठन करने का सुचन मुख्यमंत्रीने दिया है । आदिवासी किसान संघर्ष मोर्चा सरकार की ईस पहल का स्वागत करते हुए कहना चाहता है यह कदम जो आदिवासी समाज के हित मे है वह आवकारीय है लेकिन सरकार द्रारा प्रसिद्ध की गई प्रेस नोट पर कुछ जायज बाते जरुरी है ।

• सरकार को आदिवासी समुदाय को असंवैधानिक शब्द वनबंधु से संबोधित करना उचित नही है ।

• सरकार के मुताबिक आदिवासी कानुनी प्रक्रिया से अनजान होने की वजह से अधिकार से वंचित ना रह जाए ईस लीए सरकार ने यह कदम उठाया है ।

√ हम सरकार से कहना चाहते है की मान लेते है सरकार की बात सच है कई आदिवासी कानुनी प्रक्रिया से अनजान रहकर अपने हको से वंचित रह जाते है । सरकार जीन आदिवासीओ के दावे होना बाकी है उसे स्वीकार करने की प्रक्रिया शुरु करवाए और जिला कलक्टरो को ईसकी सुचना दे ताकि एक भी आदिवासी अपने अधिकार से वंचित ना रहे । साथ ही कानुन की कानुन की जाग्रति के लीए हुई खर्च निधि का आंकलन भी करना चाहिए ताकि समझ आए की कानुन का प्रचार करने में सरकार विफल क्यो रही ? जीसमे अब सुधार किया जा शकता है ।

√ सरकार को यहा स्पष्ट करना चाहिए की राईट्स ओफ रेकर्ड के सबंधित राज्यपाल के परिपत्र एवं कानुन अनुसार जीन 84,450 आदिवासीओ के दावे मंजुर कीये गये है उनके नाम की सातबार मालिकाना हक के लीए रेकर्ड पर आज तक कीसकी कानुनी अझानता की वजह से नही कीये गए ? यह जिम्मेदारी तो गुजरात सरकार की है । तो ईस प्रक्रिया मे देरी क्यो हो रही है ।

√ 84,450 दावे मंजुर करने के बावजुद एक लाख 1,00,000 से अधिक दावे मंजुर नही हुए है । जीन दावो को सरकार स्वीकार चुकि थी अर्थात एक लाख लोग कानुनी प्रक्रिया से जानकारी रखकर दावे कर चुके थे यह वह दावे है जो ग्रामसभा में मंजुर हो चुके हो वह सरकार मंजुर क्यो नही कर शकी ? ईसे आदिवासी समाज की कानुनी प्रक्रिया की जानकारी ना होना कहे या सरकार की आदिवासीओ के प्रति असंवेदनशीलता ?

√ 2006 मे बने वनाधिकार कानुन के दावे जो मेरी जानकारी से 2007 से 2010 के बीच ज्यादातर रुप से सरकार को सोंप दिए गये उसमे जांच एवं निर्णय करने मे ईतने साल क्यों किये गये ? क्या पीछली दस साल मे बनी गुजरात की सरकारे आदिवासीओ के लीए असंवेदनशील थी ?

√ आज भी ढेरो दावे मंजुर किये जायेंगे कानुनी रुप से तो उस प्रक्रिया मे देरी के लीए आदिवासी की कानुनी जानकारी का अभाव जिम्मेवार है या सरकार की आदिवासीओ के प्रति असंवेदनशीलता ?

• एसे ही अनगिनंत सवाल के साथ आकरी सवाल जंगलो को नियंत्रित करने ब्रिटीश हुकुमत ने बनाया 1927 का जंगल कानुन खत्म कर संविधान की पांचवी अनुसुचि मजबुती से लागु कर गुजरात सरकार कारवाई कर आदिवासीओ के प्रति संवेदनशीलता दीखायेगी ?

• कई आदिवासीओ के कब्जे वाली जंगल जमीन जीस पर उनका दावा है वहा सरकारी वनविभाग गढ्ढे कर उस जमीन को खराब कर देता है ।

• सुप्रिम कोर्ट के फैंसले के बाद यह गैरकानुनी हरकत तेज हुई है गुजराक सरकार परिपत्र कर वनविभाग को कब सुचित करेगा की सरकार आदिवासीओ के लीए संवेदनशील है तो वनविभाग आदिवासीओ की दावा की हुई जमीन पर गढ्ढे ना करे या पौधे लगाकर आदिवासीओ को प्रताडित ना करे!

• सरकार द्रारा गठित उच्चस्तरीय समिति के सदस्यो की सुचि जल्द से जल्द सरकार घोषित करे एवं रिव्यु पीटीशन के साथ संवेदनशील गुजरात सरकार केन्द्र सरकार से दर्खास्त कर ईस ओर्डर को रोकने अध्यादेश की मांग को बुलंद करे ।

• दिनांक पांच मार्च को माननीय प्रधानमंत्री सोनगढ, तापी जिले मे सभा संबोधित करने जायेंगे उस दौरान कई आदिवासीओ के जमीन के दावे मंजुर कीये जा शकते है । हो शकता है प्रधानमंत्री के हाथो आदिवासीओ को उनके अधिकार पत्र सुप्रत करने का मौका भी बने दिनांक 5 मार्च 2019 को मंजुर कीये जाने वाले दावे मंजुर करने में कानुन 2006 में बना तबसे आज तक पंद्रह वर्ष से अधिक का समय क्यो लगा ?

• जीन दावो का स्वीकार सरकार कर चुकी है उसका अर्थ है वह कानुनी प्रक्रिया से जाग्रत आदिवासीओ ने कीये थे लेकिन पीछले पंद्रह वर्षो मे आदिवासीओ के प्रति असंवेदनशील रही राज्य सरकार ईस कानुनी प्रक्रिया को करने में विफल रही है यह बात आज स्पष्ट पता चलती है ।  रोमेल सुतरिया

(AKSM-अध्यक्ष)