क्या है जंगल जमीन का सवाल?

आपने कभी सुना है एक ही चीज से लीए दो कानुन हो ?

हमारे देश मे जंगल के लीए दो कानुन है ।

एक कानुन 1927 का वन अधिनियम एवं दुसरा है वनाधिकार कानुन 2005/6 ।

अब आप जंगल मे रहते हो तो सोचिये एक कानुन आपको खेती करने की ईजाजत नही देता और एक कानुन आपको खेती करने की ईजाजत देता है! आप क्या करेंगे?

एक कानुन आपको जंगल से फल तोडने का अधिकार नही देता और दुसरा कानुन उन फलो को तोडकर संग्रह कर बेचने तक का अधिकार देता है? आप क्या करेंगे?

एक कानुन पेड से दातुन हो या पेड की छीलका तक तोडने की अनुनति नही देता और एक कानुन आपको जलाउ लकडी से लेकर जीवनजरुरी लकडी लेने का अधिकार देता है । आप क्यां करेंगे ?

यह एसी बात है जैसे एक नियम आपको कीसी सडक पर वाहन चलाने की अनुमति नही देता पर कोई दुसरा कानुन आपको उसी सडक पर वाहन चलाने की अनुमति देता है ।

वन विभाग जो 1927 का जंगल कानुन से चलता है ।

तो वही आदिवासी 2005 का वनाधिकर कानुन से चलने कोशिश करते है ।

आझाद भारत में यह दुविधा कीससे बयान करे?

कुछ लोग तततततत ममममम बबबबब भभभभ कर जब आदिवासी हक के लीए बोलते है तब मुझे हंसी आ जाती है । वह भी निर्दोष है पर सवाल ईतना गंभीर है जीसे कोई सुलझाना नही चाहता । ना उस पर कोई बहस करना चाहता है ।

मेरा स्पष्ट रुप से मानना है की यदि वन विभाग होता ही नही तो देश का जंगल और आदिवासीयो के मानव अधिकार बचे रहते ।

ब्रिटीश हुकुमत ने जंगल लुंटने के ईरादे से जीस 1927 के जंगल कानुन को ब्रिटीश पार्लामेंट मे बनाया एवं जीस वन विभाग की शुरुआत की थी उसे आझाद भारत में खत्म नही करके आज तक आदिवासीओ के नाम केवल राजनिति हुई है ।

आज भी आदिवासीओ की आवाज उठाने के नाम पर आदिवासीओ से यही छलावा किया जा रहा है ।

आझादी के ईतने सालो मे वन विभाग एवं 1927 के कानुन को लेकर राजनैतिक दलो से लेकर आदिवासी समाज के बन बेठे नेता, विधायक, सांसदो ने क्यो सवाल खडे नही कीये यह आज के आदिवासी युवाओ को समझना होगा ।

कोंग्रेस आज भी एसे मसलो पर चुप है और सत्ता परिवर्तन चाहती है तो भाजपा अपनी राजनिति करने मे व्यस्त है ।

कुछ देर के लीए मान लेते है की सुप्रिम का ओर्डर रोक दिया जायेगा तो भी यह समस्या का समाधान हरगीज नही होगा । यह हम सबको समझना होगा । ईससे आदिवासीओ के मानवअधिकार के उल्लंघन, अन्याय, अत्याचार, विस्थापन की समस्याए नही रुकनी वाली । ईसे रोकने सचमे न्याय करने के लीए सही नितियो की आवश्यकता है । जीसका जीक्र पहले से भारत के संविधान मे है ।

यह कोई आदर्श बात नही है वैश्विक स्तर पर कई देश एसे निर्णय कर चुके है । जरुरी है न्यायिक कानुन व्यवस्था एवं सही नितिनिर्माताओ की जो सच मे आदिवासी हित की बात करे ना की राजनिति ।

में राजनिति के खिलाफ नही हुं पर केवल वोटबैंक की राजनिति जब हो रही हो जीससे जनता को कोई लाभ ना हो उसके खिलाफ हुं ।

तो चलो कहते सरकार 1927 का जंगल कानुन रद्द करे एवं वनाधिकार कानुन 2005 लागु करे ।

सुप्रिम कोर्ट को भी यह तय करना चाहिए की जंगल मे 1927 का कानुन चलेगा या वनाधिकार 2005/6 ?

पीछले लंबे समय से आदिवासी साथी एवं जंगलो के बीच घुमते हुए मीले झान एवं संघर्ष के अनुभव से यह बात कह रहा हुं । अगर बात गलत है तो स्वीकार करने तैयार रहुंगा ।

रोमेल सुतरिया

(AKSM-अध्यक्ष)